जातीय जनगणना पर केंद्र सरकार की नीति परिवर्तन: राजनीतिक विश्लेषण
पहले विरोध, अब समर्थन: समीकरणों में बदलाव
बीते दशक में भाजपा और आरएसएस जातीय जनगणना के विरोधी रहे हैं, यह कहते हुए कि इससे समाज में विभाजन बढ़ सकता है। अप्रैल 2025 में अचानक इसकी घोषणा से राजनीतिक परिदृश्य बदल गया है। विश्लेषकों के मुताबिक, 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को पिछड़ी जातियों के बीच समर्थन घटने का अनुभव हुआ, जिससे उसने अपना रुख बदला है। इसी बीच गठबंधन सहयोगियों–विशेषकर बिहार की जदयू और दक्षिण के एनडीए सहयोगी दलों के बीच जातीय सर्वेक्षण ने इस विषय को जोर दिया। भाजपा ने अब यह मुद्दा विपक्षी दलों से छीन लिया है ताकि खुद को सामाजिक न्याय के पक्षधर के रूप में दिखा सके।
हाल की घटनाओं के बीच: ध्यान भटकाव का आरोप
पहलागाम (22 अप्रैल 2025) में हुए आतंकी हमले के ठीक बाद जनगणना में जाति शामिल करने का निर्णय आया। विपक्ष ने इस समय-निर्धारण पर तीखा सवाल उठाया है। कांग्रेस, आम आदमी पार्टी सहित कई दलों ने आरोप लगाया कि सरकार सुरक्षा से जुड़ी चुनौतियों के बीच ध्यान भटकाने की कोशिश कर रही है। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने इसे “मुख्य मुद्दे से ध्यान हटाने की रणनीति” बताया, जबकि आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह ने भी इसे राष्ट्रीय सुरक्षा से ध्यान भटकाने वाला कदम बताया। भाजपा की ओर से प्रतिक्रिया यह रही है कि देश की सुरक्षा सर्वोपरि है, लेकिन सामाजिक न्याय भी जरूरी है।
चुनावी परिदृश्य और सहयोगियों की भूमिका
2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को अकेले स्पष्ट बहुमत नहीं मिला (अपेक्षित 272 में से लगभग 240 सीटें प्राप्त कीं), जबकि एनडीए के सहयोगियों को मिलाकर कुल करीब 293 सीटें हुईं। परिणामस्वरूप, प्रधानमंत्री मोदी को सरकार बनाने के लिए तेलुगुदेसम पार्टी (16 सीटें) और जनता दल (यूनाइटेड) (12 सीटें) समेत कई साझेदारों की मदद लेनी पड़ी। विश्लेषकों का मानना है कि इतने व्यापक गठबंधन को साधने के लिए भाजपा को अपनी नीतियों में इन सहयोगी दलों की मांगों का ख्याल रखना होगा। इसमें ओबीसी और अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की मांगों पर विचार करना होगा।
विपक्ष की मांगें और राज्यों के जातीय सर्वेक्षण
कांग्रेस, राजद, सपा जैसे दल पिछले लंबे समय से देशव्यापी जातीय जनगणना की मांग कर रहे हैं। राहुल गांधी ने संसद में बार-बार इसे उठाया और कहा कि यह “समाज का एक्स-रे” है। राज्यों में चल रहे सर्वेक्षणों ने इन मांगों को बल दिया है, जैसे:
बिहार: 2022 में जदयू की अगुवाई वाली सरकार ने सर्वे किया, जिसमें ओबीसी और ईबीसी मिलाकर लगभग 63% आबादी पाई गई, जबकि अग्रणी जातियों का हिस्सा करीब 15% था।
कर्नाटक: कांग्रेस सरकार द्वारा 2015/2023 में संचालित सर्वे में ओबीसी आबादी को लगभग 70% आंका गया। यह आंकड़ा उच्च जातियों (लिंगायत, वोक्कलिगा) की तुलना में कहीं अधिक है।
तेलंगाना: 2023 में कांग्रेस की राज्य सरकार द्वारा किया गया सर्वेक्षण बताता है कि पिछड़ी जातियाँ राज्य की कुल आबादी का 56% से अधिक हैं।
इन सर्वेक्षणों को विपक्ष ने अपने संघर्ष की जीत माना है, जबकि भाजपा के सहयोगी दल भी केन्द्र से इस दिशा में कदम उठाने की उम्मीद जता चुके हैं।
मीडिया एवं विश्लेषकों की प्रतिक्रिया
समाचार पत्रों और राजनीतिक विश्लेषकों ने इस निर्णय को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखा है। कई ने इसे भाजपा की रणनीति की कड़ी बताया, जिसमें विपक्ष के समाजवादी दलों के एजेंडे को अपना बनाकर सहयोगी वोट बैंक को रिझाने की कोशिश है। कुछ विश्लेषकों ने यह भी कहा कि भाजपा गांधी परिवार के एजेंडे को अपनाकर विरोधियों पर पलटवार कर रही है। दूसरी ओर, कई विचारकों ने नोट किया कि जातीय जनगणना से सामाजिक कल्याण नीतियों को और मजबूती मिलेगी। विपक्षी दलों ने इसे देशहित से ध्यान भटकाने वाला कदम कहा, जबकि सरकार ने इसे विकास-प्रधान नीतियों के लिए जरूरी आंकड़ा जुटाने वाला कदम बताया।
निष्कर्ष: मंशा और संभावित परिणाम
सरकार की मंशा साफ दिखती है: पिछड़ी एवं निराश जातियों के बीच राजनीतिक आधार मजबूत करना और सहयोगी दलों के एजेंडे को आत्मसात करना। जातीय जनगणना के माध्यम से भाजपा खुद को सामाजिक न्याय के साथ जोड़कर व्यापक वोट बैंक की तरफ संदेश देना चाहती है। इससे पिछड़ों के मुद्दों को दरकिनार करने का आरोप सरकार से हट जाएगा और वह उस वर्ग में राजनीतिक लाभ की उम्मीद कर रही है। दूसरी ओर, यह कदम भारतीय राजनीति में जातिगत विमर्श को नई गति देगा। जब आंकड़े सार्वजनिक होंगे, तो आरक्षण नीति में बदलाव की मांग और बढ़ सकती है। भाजपा अब हिन्दुत्व और सामाजिक न्याय के बीच संतुलन बनाने की चुनौती का सामना करेगी।
*यह विश्लेषण विभिन्न समाचार रिपोर्टों, सार्वजनिक उपलब्ध राजनीतिक बयानों, चुनाव परिणामों और मीडिया में आई विशेषज्ञ टिप्पणियों के आधार पर तैयार किया गया है ।







